भारत
बहुभाषी देश है। विद्वानों की मान्यता है कि विश्व में लगभग 2800 भाषाएँ बोली जाती
हैं। भाषा वैज्ञानिकों ने इन्हें लगभग 18 भाषा परिवारों में विभाजित किया है। भारत
उन चंद देशों में है जहाँ चार भाषा परिवार की भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ समान
भाषा में भी भिन्न क्षेत्र में उसके भिन्न-भिन्न रूप को आसानी से महसूस किया जा
सकता है। इतनी अधिक भाषिक विविधता के कारण ही भारतीय लोक में यह कहावत प्रचलित है-
‘चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर वाणी’। आजादी
के पूर्व और इसके उपरान्त राजनीतिक फलक पर संघ की भाषा, राजभाषा, अखिल भारतीय स्तर
पर शिक्षा की भाषा के मुद्दे जोर पकड़े हुए थे। संविधान निर्माताओं के लिए यह
चिंता का एक बड़ा विषय था। भाषा सिर्फ सम्प्रेषण (Communication) का माध्यम भर नहीं है। यह क्षेत्र विशेष की संस्कृति, अस्मिता का
द्योतक है। इन स्थितियों में किसी एक भाषा पर सर्वसम्मति मुश्किल और अनुचित प्रतीत
हो रहा था। दूसरी तरफ एक ऐसी भाषा की जरूरत महसूस हो रही थी, जो देश को एक सूत्र
में पिरो सके, जो देश भर में सम्पर्क स्थापित करने का माध्यम बन सके।
इन स्थितियों के मद्देनजर सर्वसम्मति से देश
की जनता के लिए त्रिभाषा फार्मूला लागू करने की पहल की गई। इसके अंतर्गत
विद्यालयों में छात्रों को तीन भाषाओं की शिक्षा देने का प्रावधान किया गया ।
इसमें हिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी, अंग्रेजी के साथ एक आधुनिक भारतीय भाषा वहीं
गैर हिंदी भांषी राज्यों में मातृभाषा के अलावा हिंदी और अंग्रेजी अनिवार्य की गई।
स्कूलों में त्रिभाषा सूत्र के रूप में यह व्यवस्था कई मायनों में दूरदृष्टि के
संकेत थे। भविष्य की भारतीय पीढ़ी ऐसी हो जो भारतीय छवि का प्रतिनिधित्व कर सके। भारतीय
छवि का निर्माण इसके एक से अधिक राज्यों की संस्कृति, अस्मिता से मिलकर होता है।
भाषा किसी राज्य विशेष की संस्कृति, समाज, साहित्य को जानने का महत्वपूर्ण साधन
है। इस जानने के क्रम में हम प्रकारांतर से वहाँ से जुड़ते चले जाते हैं। इस तरह
त्रिभाषा सूत्र में बंधुता की भावना निहित है। परन्तु यह प्रयास कई कारणों से
असफलता का शिकार हुआ। एकाध दक्षिणी राज्य को छोड़कर लगभग सभी दक्षिण भारतीय
राज्यों ने स्कूली संस्थान में त्रिभाषा सूत्र को लागू किया। परन्तु उत्तरी
राज्यों ने त्रिभाषा सूत्र के नाम पर हिन्दी, अंग्रेजी के साथ संस्कृत भाषा को
विद्यालयों में लागू किया। कुछेक संस्थाओं में संस्कृत के स्थान पर उर्दू भाषा
लागू की गई। जबकि त्रिभाषा का मतलब अन्य भाषाओं के साथ अपनी भाषा से इतर एक अन्य
भाषा सीखने से रहा है। यहाँ हमारा उद्देश्य संस्कृत अथवा उर्दू की महत्ता को कम
करके आंकना नहीं है। ये पूरे भारत भर की प्रतिष्ठित (Classical) भाषाएँ हैं। इनका ज्ञान पूरे भारत की जनता के लिए
अनिवार्य है। इस आधार पर देखा जाय तो त्रिभाषा के नाम पर केन्द्रीय विद्यालयों में
जर्मन बनाम संस्कृत का मुद्दा उठाना असंगत है। त्रिभाषा सूत्र प्रारंभ से ऐसी ही
असंगतियों का शिकार हुयी है।
त्रिभाषा सूत्र में आधुनिक भारतीय भाषाओं को
महत्व देना प्रकारांतर से इनकी समृद्धि की दिशा में एक बेहतर प्रयास की पहल है।
भाषा की समृद्धी का सीधा संबंध जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उसकी अभिव्यक्ति की
क्षमता, उसके साहित्य और उसकी व्यापकता से है। लोगों के दैनन्दिन व्यवहारों में
प्रयोग की जरूरत के कारण अभिव्यक्ति के स्तर पर कोई भी भाषा स्वतः समृद्ध होती है।
अपने क्षेत्र से इतर भाषिक क्षेत्र के लोगों के बीच भाषा के साथ-साथ इसके साहित्य
का भी फैलाव होता है। इतर भाषी लोगों के द्वारा उनकी स्थानीय भाषा में भाषा विशेष
के साहित्य की अनुवाद की संभावना भी बढ़ जाती है। वर्तमान परिदृश्य में अनुवाद की
अपर्याप्तता का एक बड़ा कारण इतर भाषाओं की जानकारी का अभाव रहा है। दो भिन्न
भाषाओं की जानकारी बेरोजगारी से जुझते भारतीय भाषा विद्यार्थियों के लिए अनुवाद के
रूप में रोजगार का बड़ा माध्यम हो सकता है। इन प्रयासों के द्वारा भाषा की
व्यापकता अनिवार्य है। परंतु राजनीतिक इच्छा शक्ति में कमी और ठोस नीति के अभाव
में त्रिभाषा फार्मूला के ये उद्देश्य अधूरे हैं, जिसका खामियाजा देश के
प्रतिभावान युवा भुगत रहे हैं। अधिसंख्य युवा अपने अधिकारिक भाषा से इतर भाषा में
उच्च अध्ययन करने के लिए मजबूर हैं। उनकी ज्यादातर ऊर्जा विषय-विशेष की
अवधारणात्मक समझ विकसित करने के बजाय भाषिक उलझन को सुलझाने में खपत हो जाती है।
उत्तरी राज्यों की भाषा को दक्षिणी राज्यों से
और दक्षिणी राज्यों की भाषा को उत्तरी राज्यों की जनता से जोड़ने के लिए शिक्षा के
साथ-साथ लगभग सभी क्षेत्रों में त्रिभाषा सूत्र लागू करने का प्रावधान किया गया। स्वास्थ्य,
नगरपालिका, परिवहन, पर्यटन सहित आमजन से जुड़े क्षेत्रों में इसके प्रयास न के
बराबर दिखते हैं। भारतीय रेल ने इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत गंभीर प्रयास किये हैं।
इसने पटरियों और रेल के द्वारा लोगों को जोड़ने के साथ-साथ भाषा के स्तर पर भी
एक-दूसरे को नजदीक लाने का काम किया है। यहाँ भी दक्षिण और दक्षिण मध्य रेलवे आगे
है। यहाँ के स्टेशनों, यात्री-टिकटों और अनाउंस में स्थानीय भाषा के साथ-साथ हिंदी
और अंग्रेजी का प्रयोग देखा जा सकता है। परंतु उत्तर और उत्तर मध्य रेलवे में
दक्षिणी भाषाओँ की उपेक्षा द्रष्टव्य होती है-
रूमा उत्तर मध्य रेलवे का एक स्टेशन है। इस रूट से कई दक्षिण भारतीय यात्रा करते हैं पर उनकी भाषा का यहाँ कोई स्थान नहीं है। त्रिभाषा सूत्र भारत की बहुभाषिक छवि को
अक्षुण्ण बनाये रखने की दिशा में एक कदम है। यह राष्ट्रीय स्तर पर एकभाषिकता की
स्थिति को नकारता है। अनेक चिन्तक राष्ट्रीय स्तर पर बहुभाषिक स्थिति को आर्थिक और
शैक्षिक दृष्टि के विकास की दिशा में बाधक मानते हैं। यह धारणा तथ्य से परे है।
विश्वपटल पर बेल्जियम, कनाडा, स्विटजरलैंड, इसराइल, पूर्व सोवियत संघ, बल्गारिया
जैसे अनेक देश हैं जो बहुभाषिक होते हुए शैक्षिक और आर्थिक दृष्टि से समुन्नत हैं।
इसके विपरीत अल्बानिया, ब्राजील, मैक्सिको, पुर्तगाल, जार्डेन, कोरिया, लीबिया,
आदि भाषिक दृष्टि से समरूप होते हुए भी आर्थिक-शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं।
बहुभाषिकता के विपक्ष में ऐसे कई मिथ हैं। कुछ
लोगों का मानना है कि बहुभाषिकता व्यक्ति की सर्जनात्मकता को कम करती है। यह धारणा
बेबुनियाद है। सैमुअल बैकेट (फ्रेंच-इंग्लिश), काफ्का (चेक-जर्मन-चोडिश), नोबोकोव
(रूसी-फ्रेंच-जर्मनी-अंग्रेजी), महात्मा गाँधी (गुजराती-अंग्रेजी-हिन्दी), दयानन्द
(हिंदी-गुजराती-संस्कृत), राहुल सांकृत्यायन (हिन्दी-रसियन-पाली-संस्कृत-तिब्बती),
पी.वी. नरिसिम्हा राव (हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी-मलयालम- सहित अठारह भाषाएँ) आदि
अनेक व्यक्तित्व हैं जो बहुभाषिकता की सर्जन-क्षमता के उदाहरण हैं।
कुछ चिन्तकों का मानना है कि बहुभाषिकता बच्चे
की शिक्षा और व्यक्तित्व-विकास में बाधक होती है। परंतु भारतीय समाज में ऐसे अनेक
तत्व हैं जहाँ बहुभाषिकता स्वतः फलती-फूलती है। शिक्षाविदों ने कक्षा-कक्ष में
बहुभाषिकता को समृद्धी के रूप में देखा है। भाषा का प्रत्येक शब्द एक अवधारणा है,
एक विशेष संस्कृति का द्योतक है। बहुभाषिकता को बढ़ावा देने वाली कक्षाओँ में अधिक
से अधिक शब्दों से परिचित होने का अवसर मिलता है। इससे बच्चे का ज्ञान फलक विस्तृत
और गहन होता है तथा उसके अनुभव में तीव्रता से वृद्धी होती है।
ठोस नीति और संकल्पना के अभाव में त्रिभाषा
सूत्र के निहितार्थ हाशिये पर हैं। इन हालातों में वर्चस्ववादी शक्तियाँ भाषिक
राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे हैं। देश का बड़ा हिस्सा अपने ही देश के विभिन्न
भाषाओँ के समृद्ध साहित्य से वंचित है। संवेदना के स्तर पर लोग भाषिक परिधि में
बंटे हुए हैं। त्रिभाषा सूत्र इस परिधि को तोड़ने का मजबूत औजार हो सकती है।
- डॉ. सौरभ
कुमार
उप प्रबंधक (राभा)
एमएमटीसी लिमिटेड,
चेन्नै
मो.न. : 9884732842.
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