यहाँ हिंदी से मतलब संघ की राजभाषा हिंदी से है।
आजाद भारत की राजभाषा के रूप में हिंदी की परिकल्पना इसकी व्यापकता को देखते हुए
की गई। कुछ लोग हिंदी को उत्तर भारत की भाषा मानते हैं और वहीं तक सीमित कर देते
हैं। यह अर्धसत्य है। पहली बात तो यह कि उत्तर भारत में विभिन्न क्षेत्रों की
अपनी-अपनी भाषाएँ हैं और दूसरी हिंदी अपनी विभिन्न रूपों में न सिर्फ पूरे भारत
में बोली-समझी जाती है बल्कि यह भारत की सीमाओं से बाहर पाकिस्तान, नेपाल,
अफगानिस्तान, म्यानमर, मॉरिशस, फीजी, त्रिनिदाद, कनाडा, आदि देशी में बोली-समझी
जाती है। जैसे कि भारत में मुम्बइया हिंदी, दखिणी हिंदी आदि तथा उर्दू, जो कि
हिंदी का ही एक रूप है, जो भारत और इससे बाहर रह रहे मुस्लिम भाई-बंधुओं की एक
प्रमुख भाषा है। जाहिर है, देश की बड़ी जनसंख्या अपने दैनिक व्यवहार में हिंदी का
प्रयोग करती है। हिंदी की इसी व्यापकता और जरूरत के संदर्भ में महात्मा गांधी
लिखते हैं कि – “समूचे हिंदुस्तान
के साथ व्यवहार करने के लिए हमको भारतीय भाषाओं में से एक ऐसी भाषा की जरूरत है,
जिसे आज ज्यादा-से-ज्यादा तादाद में लोग जानते और समझते हों और बाकी के लोग जिसे
झट से सीख सकें। इसमें शक नहीं कि हिंदी ही ऐसी भाषा है। उत्तर के हिंदू और
मुसलमान, दोनों इस भाषा को बोलते और समझते हैं। यही भाषा जब उर्दू में लिखी जाती
है, तो उर्दू कहलाती है।” (लेख – हमारी
मातृभाषा और हमारी राष्ट्रभाषा की ताकत – महात्मा गांधी, प्रकाशित – हिंदुस्तान समाचार
पत्र, 2.09.017, पृ.–7, संपादकीय पृ.)
दरअसल हिंदी भाषा भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति
को वहन करनेवाली भाषा है। विविध संस्कृतियों के बीच सेतु का काम करनेवाली भाषा है।
यह भारत की ‘विविधता में एकता’ की भावना को पुष्ट करती
है। कई लोगों का मत है कि संविधान द्वारा हिंदी को बढ़ावा देना भारत की भाषाई
विविधता को खतरे में डाल रहा है। भाषाई राजनीति करनेवाले कई संगठन इस मत को और
अधिक हवा देते हैं तथा इसे संस्कृति पर हमले से जोड़ते हैं। जबकि भारतीय संविधान
द्वारा मान्यता प्रदत्त राजभाषा हिंदी की संकल्पना विभिन्न भारतीय संस्कृति और
उसकी भाषाओं के साथ अन्योन्याश्रय संबंध स्थापित करते हुए की गई है। अनुच्छेद 351
के अनुसार संघ का कर्तव्य है कि वह हिंदी भाषा के विकास एवं प्रचार हेतु समुचित
प्रयत्न करेगी, जिससे वह सारे देश में प्रयुक्त हो सके और भारत की मिलीजुली
संस्कृति और विभिन्न भाषाओं को अभिव्यक्त कर सके। इसके लिए संविधान में इस बात का
भी निर्देश किया गया है कि हिंदी में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को समाहित कर
उसके शब्दभण्डार को समृद्ध किया जाए। इसके लिए राजभाषा आयोग का गठन किया गया। स्पष्ट
है कि संविधान राजभाषा हिंदी के विकास में अन्य भारतीय भाषाओं की उपेक्षा नहीं
करता है बल्कि सभी की विशेषताओं को समाहित करने पर बल देता है। साथ ही संविधान
आठवीं अनुसूची का प्रावधान करता है, जिसके अंतर्गत जनभावनाओं की मांगों के अनुरूप
भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करते हुए उस भाषा विशेष के विकास हेतु कदम
उठाता है ताकि वह भाषाविशेष समृद्ध हो सके। इसके अंतर्गत शुरू में 14 भाषाओं को
शामिल किया गया, जिसकी संख्या अभी 22 है। भविष्य में जनभावनाओं की मांगों के
अनुरूप आठवीं अनुसूची में और भारतीय भाषाओं को शामिल किया जा सकता है। इसके अलावा
भारतीय भाषाओं की विविधताओं के मद्देनज़र त्रिभाषा सूत्र का प्रतिपादन किया गया।
त्रिभाषा सूत्र राज्यविशेष की राजभाषाओं को शिक्षा, परिवहन, कार्यपालिका,
न्यायपालिका, मीडिया आदि प्रबंधनों में प्राथमिकता प्रदान करते हुए हिंदी और अन्य
भाषाओं की बात करता है। शिक्षा पर आधारित विभिन्न शोधों में यह बात सामने आयी है
कि बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा उनकी मातृभाषाओं में दी जानी चाहिए। उसके बाद
उत्तरोत्तर कक्षाओं में उन्हें पाठ्यपुस्तक की भाषा, तत्पश्चात हिंदी और कोई
विदेशी भाषा की शिक्षा दी जानी चाहिए। त्रिभाषा सूत्र राज्यविशेष की राजभाषाओं को
प्राथमिकता पर रखते हुए हिंदी को वरीयता प्रदान करते हुए इसी की बात करता है, जबकि
त्रिभाषा सूत्र को तरजीह नहीं देनेवाली संस्थाएँ भारतीय भाषाओं को तवज्जों नहीं
देती हैं। भारत भर में बड़े-बड़े निजी स्कूलों में बच्चों को उनकी अपनी मातृभाषा
में बात करने पर आर्थिक दंड भरना पड़ता है, वहीं बड़े-बड़े निजी व्यवसायिक
कार्यालयों में हिंदी या किसी भारतीय भाषा में बात करने पर उन्हें हीन दृष्टि से
देखा जाता है। स्पष्ट है कि हिंदी के विकास में अन्य भारतीय भाषाओं का विकास है और
अन्य भारतीय भाषाओं के विकास में हिंदी का विकास निहित है।
इन समग्र दृष्टियों के साथ सतत् प्रयास राजभाषा
हिंदी में काम करने के लिए आवश्यक है। यह कार्य को सहज बना देता है। देश के
विभिन्न भागों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए हिंदी शिक्षण योजना, दक्षिण भारत
हिंदी संस्थान, केंद्रीय हिंदी संस्थान आदि स्थापित संस्थाएँ और केंद्र सरकार की
अधीन संस्थाएँ समग्र दृष्टि के साथ समन्वयवादी कदम उठा रही हैं। दक्षिण भारत के एक
प्रमुख शहर चेन्नै में स्थित एमएमटीसी का क्षेत्रीय कार्यालय इन्हीं व्यापक
उद्देश्यों के साथ राजभाषा हिंदी सीखने-सिखाने के प्रति सजग है। कार्यालय के अंदर
और कार्यालय से बाहर होनेवाली राजभाषा से संबंधित गतिविधियों में इसके कर्मचारी
सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं। दरअसल भाषा सिर्फ प्रशिक्षण कक्षाओं में नहीं सिखी
जा सकती है। विभिन्न गतिविधियों में सीधी भागीदारी भाषा सीखने का एक रोचक और बेहतर
माध्यम है। नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, चेन्नै के तत्वाधान में राजभाषा
समारोह, 2017 के अवसर पर छह प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया। लगभग प्रतियोगिताओं
में कर्मचारियों ने उत्साह से भाग लिया। हिंदी वाक् प्रतियोगिता में श्रीमती
जेनिफर डिफाइवा, प्रबंधक, ने ‘वर्तमान शिक्षा प्रणाली’
विषय पर
अपने विचार रखें। उन्होंने दिनों-दिन शिक्षा के होते निजीकरण पर चिंता जाहिर की।
अरबों जनसंख्या वाले इस देश में जहाँ की बड़ी आबादी बुनियादी जरूरतों के लिए जूझ
रही है। उस देश में शिक्षा में बढ़ता निजीकरण बड़ी आबादी को शिक्षा से वंचित कर
रहा है। उन्होंने साकेत चौधरी निर्देशित फिल्म ‘हिंदी मीडियम’ का उदाहरण देते हुए कहा कि सरकार ने इन विद्यालयों में वंचित तबकों के
बच्चों के दाखिला के लिए प्रावधान भी किया है, परन्तु व्यवस्था में झोल वंचित
तबकों के बच्चों को सिलन और बदबूदार भरे सरकारी स्कूलों की कक्षाओं में रहने के
लिए अभिशप्त कर देती है। उन्होंने
शिक्षक-बच्चों के संबंधों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हमारे स्कूलों में शिक्षकों
और बच्चों के रिश्तों के बीच बड़ी खाई है, जिसके कारण शिक्षक बच्चों की विशेषताओं,
कमजोरियों और परेशानियों को समझ नहीं पाते हैं, जिससे कल के भविष्य की नींव वर्तमान
में ही कमजोर हो जाती है। आमिर खान निर्देशित और
अभिनीत फिल्म “तारे ज़मीन पर” के ‘निकुम्भ’ (आमिर खान) और ‘ईशान’ (दर्शील सफारी) की
चर्चा करते हुए जेनिफर ने रेखांकित किया कि स्कूलों में कई ‘ईशान’ हैं, परन्तु हर
ईशान को ‘निकुम्भ’ नहीं मिल पाते हैं। यह दिखाता है कि हमारी
शिक्षा-प्रणाली में शिक्षक-प्रशिक्षण का बड़ा अभाव है।
हिंदी पुस्तक समीक्षा प्रतियोगिता में
श्रीमती एस. राजेश्वरी, प्रबंधक, ने प्रसिद्ध उपन्यासकार भगवती चरण वर्मा के
उपन्यास ‘वह फिर नहीं आई’ की समीक्षा की। यह उपन्यास भौतिकवादी जमाने में - जहाँ
रूपया जीवन का एक बड़ा सच हो गया है और सफलता बहुत कम लोगों को नसीब है - झूलते प्रेम को दिखाया है। जीवन में रूपये की
दखल इस सीमा तक बढ़ गई है कि निजी रिश्ते निजी नहीं रह गये हैं। वह भी इसके आवेश
में आ गये हैं। श्रीमती एस. राजेश्वरी ने कहा कि इस उपन्यास का रचनाकाल सन् 1960 ई.
है। भारतीय समाज में पूंजीवाद का दखल उस
समय आरंभिक अवस्था में थी, जो दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। यह दखल मनुष्य के
जीवन को विडंबनामय बनाती जा रही है। ‘वह फिर नहीं आयी’ के तीनों पात्र –
ज्ञानचंद, सावित्री और जीवनराम – इसी विडंबना को खोलते नज़र आते हैं। उपन्यासकार
ने इस उपन्यास में पात्रों के नाम का प्रतीकात्मक प्रयोग किया है। ज्ञानचंद, जो
ज्ञानी तो हैं, परंतु अपने ज्ञान का प्रयोग अपने निर्णयों को जस्टिफाई करने में
अधिक करते नज़र आते हैं। जीवनराम के जीवन में जीवन की छाया तक नहीं है। वह जीवनभर
जीवन की खोज में रहता है। सावित्री, ज्ञानचंद और जीवनराम के बीच में लोक में
प्रचलित अपने सतीत्व को तलाशती नज़र आती है। इस तरह भगवती चरण वर्मा का यह 90 पृष्ठों का उपन्यास
समकालीन समय और समाज के यथार्थ को उघेर कर रख देता है। श्री एस. राजेश्वरी के कथ्य
और बेहतर प्रस्तुति के लिए उन्हें सांत्वना पुरस्कार प्रदान किया गया।
हिंदी वाद-विवाद प्रतियोगिता में श्री एन. पोन्नमबलम, वरिष्ठ कार्यालय
प्रबंधक, ने भाग लिया।
वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय “सेवानिवृत्ति की
उम्र बढ़ायी जानी चाहिए” थी। श्री एन.
पोन्नमबलम ने उपर्युक्त विषय से असहमति रखते हुए अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा
कि अरबों आबादी वाले इस देश में प्रतिदिन हजारों युवा नौकरी के लिए तैयार होते
हैं। ऐसी स्थिति में सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ायी जाने से युवाओं के लिए अवसर कम
हो जाते हैं। वहीं एक उम्र के बाद आदमी की सामर्थ्य-शक्ति कम हो जाती है। उनके
बनिस्पत युवा ज्यादा काम कर सकते हैं। युवामन किसी भी नयी तकनीक, नये बदलावों तथा
नवाचार को तेजी से अपनाते हैं। अपने एक साथी के बिंदु बढ़ती उम्र के साथ अनुभव का
हवाला देते हुए श्री पोन्नमबलम ने कहा कि यह सही है कि किसी भी संस्था को अनुभवी
कर्मचारियों के अनुभव का लाभ मिलता है। अनुभवी कर्मचारी युवाओं की नयी पीढ़ी को
तैयार करते हैं, परंतु इसके लिए सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ायी जाना समस्या का
समाधान नहीं है। बल्कि समय रहते अनुभवी कर्मचारियों के साथ नयी पीढ़ी को कार्य
करने का अवसर प्रदान किया जाए और समय-समय पर कार्यशालाओं के माध्यम से उनके
अनुभवों के लाभ उठाएँ जाएँ।
हिंदी निबंध प्रतियोगिता में श्रीमती एस.
राजेश्वरी ने भाग लेते हुए “भारत में आतंकवाद” विषय पर अपने विचार रखें। उन्होंने भारत में आतंकवाद के
ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में भरोसा न
करके लोकतांत्रिक रूप से अपने अधिकारों की मांग न करके हथियार उठा लेना आतंकवाद के
मूल में है। इनका मूल मकसद लोगों को अस्थिर करना होता है ताकि देश विशेष के
सामाजिक-आर्थिक ढाँचा चरमरा उठे और वे अपने मकसद में कामियाब हो सकें। श्रीमती
राजेश्वरी देश में फैले बेरोजगार को आतंकवाद के प्रचार का एक बड़ा कारन मानती हैं।
आतंकवादी संगठन बेरोजगार युवाओं को आसानी से अपने आगोश में लेकर उनका माइंडवास कर
देते हैं और उनकी ऊर्जा को अपने निहित स्वार्थों के लिए उपभोग करते हैं।
चेन्नै शहर में हिंदी शिक्षण योजना,
केंद्रीय हिंदी संस्थान आदि हिंदी के प्रचार-प्रसार में अहम् भूमिका निभा रहे हैं।
ये संस्थाएँ वर्षों से कर्मचारियों के साथ हिंदी के विकास की दिशा में काम कर रही
हैं, जिससे कर्मचारियों में हिंदी के प्रति बढ़ते रूझान को सहज ही महसूस किया जा
सकता है। एक कर्मचारी में हिंदी के प्रति रूचि पैदा करना प्रकारांतर से उनके
सगे-संबंधी, दोस्तों का भी ध्यान हिंदी की ओर खींचना है। इनके सतत् प्रयासों से
लोगों में हिंदी सीखने के प्रति ललक को चेन्नै के आबोहवा में महसूस किया जा सकता
है। तकनीक के बढ़ते प्रयोग को देखते हुए केन्द्रीय हिंदी प्रशिक्षण उपसंस्थान तथा
हिंदी शिक्षण योजना, चेन्नै के संयुक्त प्रयासों से “कंप्यूटर पर हिंदी में काम करने के लिए पांच दिवसीय
बेसिक प्रशिक्षण कार्यक्रम” का आयोजन किया
गया। इसमें क्षेत्रीय कार्यालय, चेन्नै से श्रीमती एस. राजेश्वरी, प्रबंधक,
श्रीमती कामाक्षी गोपालकृष्णन, मुकाप्र, श्रीमती प्रेमा रामकुमार, मुकाप्र (निस),
श्रीमती जे. राजेश्वरी, मुकाप्र (निस), श्रीमती पद्मावती सेम्बियन, वकाप्र ने
प्रशिक्षण प्राप्त किया। इसमें कंप्यूटर में हिंदी के विभिन्न अनुप्रयोगों पर
प्रशिक्षण दिया गया।


हिंदी आज कंप्यूटर के
लिए अजनबी भाषा नहीं रह गयी है, बल्कि विभिन्न शोधों में यह सामने आया है कि जिस
रफ्तार से हिंदी सामाग्रियों की मौजूदगी इंटरनेट-कंप्यूटर पर बढ़ रही है, जल्द ही
एक दिन यह सभी भाषाओं को पीछे छोड़ देगी। यह कंप्यूटर पर हिंदी में सरलतापूर्वक
काम कर पाने के कारण संभव हो रहा है। उपरोक्त प्रशिक्षण में इसी सरलता से
प्रशिक्षार्थियों को अवगत कराते हुए यूनिकोड टाइपिंग, नॉन-यूनिकोड सामग्री का
यूनिकोड सामग्री में परिवर्तन, वाइस टाइपिंग, ई-हिंदी शब्दकोष, गूगल अनुवाद आदि का
प्रशिक्षण दिया गया। राजभाषा विभाग द्वारा हिंदी के विकसित विभिन्न सॉफ्टवेयर जैसे
– मंत्र, श्रुतलेखन तथा लीला प्रबोध, प्रवीण, प्राज्ञ की जानकारी दी गई। इसके
अलावा राजभाषा के वेबसाइट, हिंदी के कहानी, कविताओं, नाटक आदि साहित्यिक,
सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक, खेलकूद, मनोरंजन आदि समाचार पत्रों के वेबसाइटों से
कर्मचारियों का परिचय कराया गया। पाँच दिवसीय यह प्रशिक्षण कार्मिकों के लिए
लाभदायी रहा। कमोबेश कार्मिक पूर्ण रूप से यूनिकोड फाँट के माध्यम से हिंदी
टाइपिंग करने लगे हैं।
हरेक साल सितंबर महीने में राजभाषा पखवाड़ा
का आयोजन किया जाता है। राजभाषा पखवाड़ा के आयोजन के उद्देश्य व्यापक हैं। यह राजभाषा
से जुड़े अधिकारियों, कर्मचारियों के लिए राजभाषा हिंदी के लक्ष्यों को दुहराने, पूर्वनिर्धारित
कार्यों की समीक्षा करने का समय तो हैं ही, साथ ही विभिन्न प्रतियोगिताओं के
आयोजनों के द्वारा कार्मिकों को राजभाषा से जोड़ने के साथ-साथ उनके मूल्यांकन का
भी समय है, ताकि समग्र मूल्यांकन के द्वारा आगामी वर्ष की कार्ययोजना निर्धारित की
जा सके। इन्हीं दृष्टिकोणों के साथ राजभाषा पखवाड़ा, 2017 के अंतर्गत एमएमटीसी के
क्षेत्रीय कार्यालय, चेन्नै में कुल छह प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया। हिंदी
वाक्, हिंदी पुस्तकालय उपयोगिता, टिप्पण एवं प्रारूप लेखन, वस्तुनामन, शब्द शक्ति
एवं हिंदी निबंध प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया। हिंदी वाक् एवं हिंदी निबंध
प्रतियोगिता के विषय दैनिक जीवन से जुड़े हुए रखे गयें। हिंदी वाक् प्रतियोगिता में
संपर्क भाषा हिंदी ही क्यों?, मनुष्य की उन्नति में खेलों का महत्व, सोशल
मीडिया का जीवन पर प्रभाव और सकारात्मक सोच विषय रखे गयें। सभी विषयों पर अलग-अलग
प्रतिभागियों ने अपनी बात रखी। संपर्क भाषा हिंदी ही क्यों? विषय पर श्रीमती प्रेमा रामकुमार और श्री पी. वेंकेट राव
ने अपने विचार रखते हुए कहा कि हिंदी भाषा की व्यापकता, इसका एक बड़ा कारण है।
अंग्रेजी जहाँ अभिजात्य वर्गों की भाषा है, वहीं हिंदी भारत भर के जनसाधारण की
भाषा है। भारत के किसान, मजदूर, खोमचे लगानेवालों, सब्जी बेचनेवालों, छोटे उधोग
चलानेवालों, ऑटो चलाने वालों की जुबान हिंदी है। इनके पेट हिंदी भाषा से भरते हैं।
दफ्तरों में भी अंग्रेजी दस्तावेजों की भाषा है, वहीं हिंदी व्यवहार की भाषा है।
हमें हिंदी को व्यवहार के साथ-साथ पूर्णरूप से दस्तावेजों पर लाना है, जिसके
प्रयास जारी हैं। श्रीमती रामकुमार ने रेखांकित किया कि आजादी से पहले राष्ट्रीय
जनजागरण में हिंदी ने देशभर में बड़ी भूमिका निभायी। हिंदी के इसी भूमिका को देखते
हुए बंगाल के श्री केशवचंद्र सेन, महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक, गुरूदेव
रवीन्द्रनाथ टैगोर, गुजरात के महात्मा गाँधी, तमिलनाडु के सी.राजगोपालाचारी उर्फ
राजा जी, कवि सुब्रहम्णयम भारती, पंजाब के लाला लाजपत राय आदि राजनेताओं और
विद्वानों ने हिंदी का प्रसार देशभर में करने और राष्ट्रभाषा के रूप में इसे दर्जा
दिलाने के महत्तम प्रयास किया।
श्री एन.
पोलम्बलम ने “मनुष्य की उन्नति में खेलों का महत्व” विषय पर अपने विचार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि मनुष्य
के जीवन में खेल वैसे ही आवश्यक है, जैसे अच्छे जीवन के लिए अच्छी शिक्षा आवश्यक
है। खेल न सिर्फ हमारे शरीर को स्वस्थ रखता है, बल्कि यह हमारे मन को भी आकार
प्रदान करता है। खेल व्यक्तित्व निर्माण में अहम् भूमिका निभाता है। एक खिलाड़ी के
लिए जीत-हार सामान्य बात हो जाती है। वह जीत-हार को पचाना सीख जाता है। जीत और हार
दोनों से वह अपने मजबूत और कमजोर पक्षों को पहचानते हुए भावी रणनीति बनाता है।
जीवन में जीत के किसी क्षण में वह अतिउत्साही होकर अपना आपा नहीं खो बैठता है,
वहीं हार से अवसाद ग्रस्त नहीं होता है। श्री एन. पोलम्बलम ने चिंता जाहिर की कि
आज के अधिकांश अभिभावक बच्चों को खेलने का पर्याप्त अवसर नहीं देते हैं। शहरों में
खेलने के मैदानों की कमी होती जा रही है। सरकार भी इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही
है।
श्री लघुमराजु और श्रीमती एस. राजेश्वरी
ने “सोशल मीडिया का जीवन पर प्रभाव” विषय पर अपने विचार व्यक्त किया। उन्होंने सोशल मीडिया के जीवन पर
पड़नेवाली हानियाँ और लाभों दोनों को रेखांकित किया। सोशल मीडिया एक ओर जहाँ
सात-समुंदर पार के लोगों से हमारी बात दो पलों में करा देता है, वहीं दूसरी ओर यह
पास बैठे लोगों से हमें कोसों दूर कर देता है। सोशल मीडिया अभिव्यक्ति की आजादी
देता है। इसने वैकल्पिक मीडिया की अहम् भूमिका निभायी है। इससे कई जानकारियाँ हमें
ऐसे ही मिल जाती हैं। सोशल मीडिया पर दुनियाभर की पुस्तकें हैं। आज विद्यार्थियों-शोधार्थियों
को पुस्तकालयों के चक्कर लगाने की जरूरत नहीं है। अंगुली के एक क्लिक की दूरी पर
कई किताबें उनके सामने हैं। इसने सामाजिक चेतना लाने में भी अहम् भूमिका निभायी
है। कई आंदोलनों में इसकी सक्रिय भूमिका रही है। वहीं सोशल मीडिया के नकारात्मक
पक्ष भी हैं। यह तथ्यों को तोड़-मरोड़कर सामने रखता है, जिससे कई बार स्थिति भयावह
हो जाती है। कश्मीर सहित देशभर के असामाजिक तत्वों ने इसका दुरूपयोग अपने निहित
स्वार्थों के लिए कई बार किया है। कई दंगों में सोशल मीडिया के दुरूपयोग सामने आये
हैं। ब्लू ब्हेल जैसी गेम के द्वारा बच्चों को आसान शिकार बनाया जा रहा है। इस तरह
से देखा जाए तो सोशल मीडिया हमारे जीवन पर नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह के
प्रभाव और कुप्रभाव डाल रहा है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसके उपयोग को
कितना मानव समाज के हित में कर सकते हैं।
श्री मान बहादुर बस्याल ने “सकारात्मक सोच” विषय पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि किसी भी घटना को
देखने की नजरिया काफी महत्व रखती है। वही नजरिया हमें जीवन में आगे ले जाती है या
पीछे ढकेलती है। एक ग्लास के कुछ पानी भरे हिस्से का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा
कि कुछ लोग कहेंगे कि यह गिलास आधा खाली है, कुछ लोग कहेंगे यह गिलास आधा भरा है।
इस गिलास का एक पक्ष और है। वह है, गिलास पूरा भरा है। आधा पानी से और आधा हवा से।
एक ही तथ्य की व्याख्या एक से अधिक तरीके से हो सकती है। हमें चीजों को
सकारात्मकता के साथ देखनी चाहिए, क्योंकि सकारात्मक सोच हमें आशावादी बनाती है,
जिसके बलबूते पत्थर के सीने को भी दशरथ मांझी की तरह चाक की जा सकती है।
पुस्तकालय की उपयोगिता को बढ़ाने के लिए “हिंदी पुस्तकालय
उपोयगिता प्रतियोगिता” का आयोजन किया
गया। इसके अंतर्गत कार्मिकों को राजभाषा पुस्तकालय से हिंदी की पुस्तकें लेकर
पुस्तक से कठिन शब्दों का चयन करके उसके समानार्थी अंग्रेजी के शब्दों को लिखना
था। इसके अंतर्गत लगभग 20 कार्मिकों ने हिंदी पुस्तकालय से पुस्तकें लीं, जिसमें
से 14 कार्मिकों ने हिस्सा लिया। यह एक खुली पुस्तक प्रतियोगिता थी, जिसका भरपूर
आनंद कार्मिकों ने उठाया। टिप्पण एवं प्रारूप लेखन प्रतियोगिता में भी कार्मिकों
की उपस्थिति उत्साहजनक रही। वस्तुनामन एवं शब्द-शक्ति प्रतियोगिता समूह
प्रतियोगिता थी। दोनों प्रतियोगिताओं में लगभग तीन सदस्यों के छह समूहों ने भाग
लिया। वस्तुनामन प्रतियोगिता में जहां दैनिक जीवन और आसपास की चीजों से संबंधित
प्रश्न पूछे गयें, वहीं शब्दशक्ति प्रतियोगिता में कार्यालयीन कार्यों में प्रयोग
आनेवाले शब्दों से संबंधित प्रश्न थे। दोनों प्रतियोगिताएँ मनोरंजन एवं जानकारी
भरी थीं। इनके उद्देश्य मनोरंजन के द्वारा जानकारी प्रदान करना था। इन वैकल्पिक
प्रतियोगिता के अलावा विश्लेषणात्मक लिखित प्रतियोगिता के रूप में हिंदी निबंध
प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इसके विषय विश्व में हिंदी की स्थिति, एक भारत श्रेष्ठ भारत, प्राकृतिक विपदाएँ और आपका मनपसंद
त्यौहार रखे गयें। इसमें प्रतिभागियों ने भाग लेते हुए अपनी विश्लेषणात्मक क्षमता
का परिचय देते हुए हिंदी भाषा पर अपनी दक्षता का परिचय दिया। इन प्रतियोगिताओं की
पूर्व तैयारी हिंदी पखवाड़ा के दो महीने पहले से ही शुरू कर दी गई थी। पूर्वतैयारी
के लिए सामग्री तैयार करके दी गई थी तथा समय-समय पर विभिन्न मुद्दों पर बात होती
रही। इन गतिविधियों और सतत् प्रयासों से हिंदी सीखने-सिखाने की प्रक्रिया तेज हुई
है और एमएमटीसी, क्षे.का. – चेन्नै, राजभाषा हिंदी के व्यापक लक्ष्यों की दिशा में
अग्रसर है।
- डॉ.
सौरभ कुमार
उप प्रबंधक (राभा)
एमएमटीसी, क्षे.का. –
चेन्नै.
संपर्क सं. –
9884732842.
ईमेल – saurabh@mmtclimited.com
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